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सितंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

माँ बाराही देवी मंदिर देवीधुरा, उत्तराखंड | बग्वाल मेला देवीधुरा | Maa Barahi Devi Mandir Devidhura, uttarakhand

माँ बाराही देवी मंदिर देवीधुरा, उत्तराखंड | बग्वाल मेला देवीधुरा | Maa Barahi Devi Mandir Devidhura, uttarakhand नमस्कार दगड़ियों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में उत्तराखंड में स्थित माँ बाराही देवी मंदिर देवीधुरा के बारे में बताएंगे। एक ऐसा माँ देवी का धाम जंहा मान्यता है, कि खुली आंखों से देखने वाला भक्त अंधा हो जाता है। इसी कारण देवी की मूर्ति को ताम्रपेटिका में रखा जाता है। हम बात कर रहे हैं, माँ बाराही देवी मंदिर की जो उत्तराखंड राज्य के नैनीताल जिले से लगे पाटी विकासखंड के देवीधुरा में स्थित मां बाराही धाम एक प्राचीन धार्मिक स्थल हैं। और माँ बाराही मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर दूर स्थित है। जिसे देवीधुरा के नाम से भी जाना जाता हैं। समुद्र तल से लगभग 1850 मीटर की उँचाई पर स्थित है, देवीधुरा में बसने वाली माँ बाराही का मंदिर 52 शक्ति पीठों में से एक माना जाता हैं। आषाढ़ी सावन शुक्ल पक्ष में यहां गहड़वाल, चम्याल, वालिक और लमगड़िया खामों  के बीच बग्वाल (पत्थरमार युद्ध) होता है। देवीधूरा में वाराही देवी मंदिर शक्ति के उपासकों और श्रद्धालुओं के लिय...

उत्तराखंड कुमाऊं का लोक पर्व त्योहार खतड़ुवा क्यों मनाया जाता हैं ?

उत्तराखंड कुमाऊं का लोक पर्व त्योहार खतड़ुवा क्यों मनाया जाता हैं ? नमस्कार दगड़ियों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में उत्तराखंड कुमाऊं का लोक पर्व त्योहार खतड़ुवा क्यों मनाया जाता हैं। इसके बारे में जानकारी देंगें। कुमाऊं का लोक पर्व त्योहार खतड़ुवा- उत्तराखंड कुमाऊं का लोक पर्व त्योहार खतड़ुवा पशुओं की रक्षा और खुशहाली हेतु मनाया जाता हैं। खतडुवा, खतरूवा या फिर खतड़वा त्यौहार आश्विन मास की संक्रांति के दिन उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल के लोग खतडुवा ( Khatduwa festival) लोक पर्व मनाते हैं। अश्विन संक्रांति को कन्या संक्रांति भी कहते हैं, क्योंकि इस दिन भगवान सूर्यदेव सिंह राशि की यात्रा समाप्त कर कन्या राशि मे प्रवेश करते हैं। खतड़ुवा पर्व मुख्यतः शीत ऋतु के आगमन के प्रतीक जाड़े से रक्षा की कामना तथा पशुओं की रोगों और ठंड से रक्षा की कामना के रूप में मनाया जाता है। कुछ लोक कथाओं के अनुसार खतड़ुवा पर्व को कुमाऊँ मंडल के लोग अपने सेनापति अपने राजा की विजय की खुशी में मनाते हैं। जो कि गलत लोककथा हैं। कुमाऊँ में प्रचारित   खतड़ुवा की लोककथाओं के अनुसार- कुमाऊं का लोक...

जटोली शिव मंदिर, सोलन हिमांचल प्रदेश | एशिया का सबसे ऊंचा शिव मंदिर

जटोली शिव मंदिर, सोलन हिमांचल प्रदेश | एशिया का सबसे ऊंचा शिव मंदिर नमस्कार दोस्तों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में हिमांचल प्रदेश के जटोली शिव मंदिर, सोलन जो कि एशिया का सबसे ऊंचा शिव मंदिर है, उसके बारे में जानकारी देंगे। जटोली शिव मंदिर, सोलन हिमांचल प्रदेश- एशिया का सबसे ऊंचा शिव मंदिर है। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश में मौजूद है, जिसे जटोली मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर अपनी शक्ति और चमत्कारों के लिए भी प्रसिद्ध है। हिमाचल प्रदेश के सोलन शहर से करीब 7 किलोमीटर की दूरी पर भवननिर्माण कला का बेजोड़ नमूना जटोली मंदिर स्थित है। यह शिव मंदिर दक्षिण-द्रविड़ शैली से बना हुआ है। मंदिर को बनने के लिए तकरीबन 39 साल लगे हैं। पौराणिक मान्यता है कि भगवान शिव यहां आए थे और कुछ समय के लिए यहां पर रुके भी थे और बाद में एक सिद्ध बाबा स्वामी कृष्णानंद परमहंस ने यहां आकर तपस्या की। कहा जाता है कि बाबा परमहंस के मार्गदर्शन और दिशा-निर्देश पर ही जटोली शिव मंदिर का निर्माण शुरू हुआ। मंदिर का गुंबद 111 फीट ऊंचा है। इस मंदिर में जाने के लिए आपको 100 सीढ़ियां चढ़कर जाना जाता है।  ऐसा माना जात...

श्री ब्यानधुरा बाबा ऐड़ी देवता धाम

श्री ब्यानधुरा बाबा ऐड़ी देवता धाम नमस्कार दगड़ियों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में देवभूमि उत्तराखंड जिसकी दिव्यता का वर्णन वेदों और पुराणों में भी मिलता है, वेद-पुराणों में उत्तराखंड को ऋषि-मुनियों एवं देवी-देवताओं की तपस्थली कहा गया है। राज्य के कोने-कोने में स्थित अनगिनत मंदिर उत्तराखंड के आज भी देवभूमि होने की सार्थकता को सिद्ध करते हैं। यहां के बहुत से मंदिर तो अपने रोचक रहस्यों, अद्भुत परम्पराओं एवं चमत्कारों के कारण पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है।  आज हम आपको देवभूमि उत्तराखंड में स्थित एक ऐसे ही मंदिर से रूबरू कराने जा रहे हैं जहां मन्नत पूरी होने पर धनुष और बाण चढाए जातें हैं। हम बात कर रहे हैं राज्य के कुमाऊं मंडल के चम्पावत में स्थित ब्यानधुरा बाबा के प्रसिद्ध धाम की। जो अपने चमत्कारों के कारण पूरे कुमाऊं मंडल में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है, मंदिर में भारी संख्या में चढ़ाए गए धनुष और बाण इस ‌बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। जैसा कि नाम से ही विदित है ब्यान का अर्थ है बाण और धुरा का अर्थ ऊची चोटी से है।‌ इस प्रकार ब्यानधुरा का शाब्दिक अर्थ है बाणों की चोटी। सबसे खास बात तो यह है कि ज...

उत्तराखंड के 40 प्रसिद्ध धार्मिक और पर्यटक स्थल | Uttarakhand top 40 tourist places

उत्तराखंड के 40 प्रसिद्ध धार्मिक और पर्यटक स्थल | Uttarakhand top 40 tourist places नमस्कार दोस्तों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में उत्तराखंड के 40 प्रसिद्ध धार्मिक और पर्यटक स्थल के बारे में बताएंगे। उत्तराखंड की खूबसूरत वादियाँ, हिमालय की सफेद चोटियां, झीलें, झरनें और ताल, नदियाँ ये सभी दुनिया भर के पर्यटक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।  उत्तराखंड के 40 प्रसिद्ध धार्मिक और पर्यटक स्थल- 1. नैनीताल-  प्राकृतिक सुंदरता एवं संसाधनों से भरपूर जनपद नैनीताल हिमालय पर्वत श्रंखला में एक चमकदार गहने की तरह है। कई सारी खूबसूरत झीलों से सुसज्जित यह जिला भारत में ‘झीलों के जिले’ के रूप में मशहूर है। चारों ओर से पहाडियों से घिरी हुई ‘नैनी झील’ इन झीलों में सबसे प्रमुख झील है। नैनीताल मुख्यतः दो तरह के भू भागों में बटॉ हुआ है जिसके एक ओर पहाड तथा दूसरी ओर तराई भावर आते हैं। जनपद के कुछ मुख्य पर्यटक स्थलों में नैनीताल, हल्द्वानी, कालाढूंगी, रामनगर, भवाली, भीमताल, नौकुचियाताल, सातताल, रामगढ तथा मुक्तेश्वर शामिल हैं। नैनीताल की प्राकृतिक सुंदरता अद्भुत, विस्मयकारी तथा सम्मोहित करने वाली ...

भारत छोड़ो आन्दोलन

भारत छोड़ो आन्दोलन अगस्त 1942 में उत्तराखण्ड में भी जगह - जगह पर प्रदर्शन व हड़ताले हुई। देघाट ( अल्मोड़ा ) में पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर गोलियां चलाई जिसमें हीरामणि, हरिकृष्णा, बद्रीदत्त व काण्डपाल शहीद हो गए।   ● अल्मोड़ा के धामध्यो ( सालम ) में 25 अगस्त, 1942 को सैना व जनता के बीच पत्थर व गोलियों का युद्ध हुआ।इस संघर्ष में दो प्रमुख नेता टीका सिंह व नरसिंह धानक शहीद हुए थे।    ● सालम की भाँति सल्ट क्षेत्र में भी 5 सितम्बर सन् 1942 को खुमाड़ नामक स्थान पर, जो कि सल्ट कांग्रेस का मुख्यालय था, ब्रिटिश सेना ने जनता पर गोलियां चलाई और गंगाराम तथा खीमादेव नामक दो सगे भाई शहीद हो गये। गोलियों से बुरी तरह घायल चूड़ामणि और बहादुर सिंह कुछ दिन बाद शहीद हुए।   ● स्वाधीनता आन्दोलन में सल्ट की भूमिका के लिए इसे महात्मा गाँधी ने ' कुमाऊँ का बारदोली ' की पदवी से विभूषित किया था। आज भी खुमाड़ में प्रत्येक वर्ष 5 सितम्बर को शहीद स्मृति दिवस मनाया जाता है।  ● भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान नैनीताल व चमोली के डाक बंगले और कई सरकारी इमारतें जलाई गयीं। गढ़वाल के आन्दोलन...

उत्तराखंड स्वतंत्रता आन्दोलन

उत्तराखंड स्वतंत्रता आन्दोलन  1857 की क्रान्ति-  1857 के आन्दोलन का असर राज्य में बहुत कम था, क्योंकि-  1. अन्याय पूर्ण गोरखा शासन की उपेक्षा लोगों को अंग्रेज शासन सुधारवादी लग रहा था।  2. कुमाऊँ कमीश्नर रैमजे काफी कुशल और उदार शासक था।  3. टिहरी नरेश की अंग्रेजों के प्रति भक्ति थी।  4. राज्य में शिक्षा, संचार जथा यातायात के साधनों की कमी थी।  5. उपरोक्त बातों के बावजूद राज्य में कुछ छिट - पुट कुछ आन्दोलन हुए थे।  • चम्पावत जिले के बिसुंग ( लोहाघाट ) गाँव के कालू सिंह महरा ने कुमाऊँ क्षेत्र में गुप्त संगठन ( क्रांतिवीर ) बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन चलाया। इन्हें उत्तराखण्ड का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने का गौरव प्राप्त हैं। ● कुमाऊँ क्षेत्र के ही हल्द्वानी में 17 सितम्बर 1857 को राज्य के लगभग एक हजार क्रांतिकारियों ने हल्द्वानी पर अधिकार लिया था, जिस पर अंग्रेज बड़ी मुश्किल से पुनः कब्जा कर पायें। इस घटना में अनेक क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी।  1857 के बाद-  1857 के बाद राज्य में आर्य समाज तथा अन्य संगठनों द...

उत्तराखंड के आधुनिक काल का इतिहास

उत्तराखंड के आधुनिक काल का इतिहास गोरखा शासन- गोरखा नेपाल के थे, जो कि बहुत लड़ाकू और साहसी थे। कुमाऊं के चन्द शासकों की कमजोरी का लाभ उठाते हुए 1790 ई. में उन्होंने एक छोटे से युद्ध के बाद अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया।  • कुमाऊँ पर अधिकार करने के बाद 1791 में गढ़वाल पर भी आक्रमण किया, लेकिन पराजित हो गये।  • फरवरी 1803 में संधि के विपरीत अमरसिंह थापा और हस्तीदल चौतरिया के नेतृत्व में गोरखाओं ने गढ़वाल पर पुन: आक्रमण किया और काफी सफल हुए। गढ़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह श्रीनगर छोड़कर भाग गये।  • 14 मई 1804 को गढ़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह और गोरखों के बीच देहरादून के खुड़बुड़ा के मैदान में निर्णायक युद्ध हुआ और गढ़वाल नरेश शहीद हो गये। इस प्रकार कुमाऊँ और गढ़वाल क्षेत्र पर गोरखों का आधिपत्य हो गया।  • गढ़़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह के पुत्र सुदर्शनशाह के आमंत्रण पर अक्टूबर 1814 में गढ़वाल को मुक्त कराने के लिए अंग्रेजी सेना आयी और गोरखों को पराजित कर गढ़वाल राज्य को मुक्त करा दी। अब केवल कुमाऊँ क्षेत्र ही गोरखों के अधिकार में रह गया। कर्नल निकोलस और कर्नल गार्डनर ने अप्रैल 1815 म...

उत्तराखंड का मध्यकाल का इतिहास

उत्तराखंड का मध्यकाल का इतिहास कातियूर या कत्यूरी शासक- मध्यकालीन कुमाऊँ क्षेत्र के कत्यूरी शासन की जानकारी हमें मौखिक रुप में प्रचलित स्थानीय लोकगाथाओ तथा जागर से मिलती है। लोकगाथाओं के अनुसार कार्तिकेयपुर राक्षाओं के पश्चात् कुमाऊँ में कत्यूरियों का शासन स्थापित हुआ। आगे चलकर कत्यूरियों के कमजोर पड़ने पर उनका राज्य छिन - भिन्न हो गया।  एक ही साथ इनकी कई शाखाएं कत्यूर - बैजनाथ शाखा, पाली - पछाऊँ शाखा, असकोट शाखा, डोटी शाखा, सीरा शाखा, सोर शाखा आदि ) भिन्न नामों के साथ शासन करने लगी। कत्यूर का आसंतिदेव वंश, असकोट के रजवार तथा डोटी के मल्ल इनकी प्रमुख शाखाएं थी। किसी केन्द्रीय एवं संगठित शासन के अभाव में इस दौरान कई बाह्य आक्रमण भी हुए। • आसंतिदेव ने कत्यूर राज्य में आसंतिदेव राजवंश की स्थापना की और कुछ समय पश्चात् इसने अपनी राजधानी जोशीमठ से परिवर्तित कर कत्यूर राज्य के रणधूलाकोट में स्थापित की। • इस वंश का अंतिम शासक ब्रह्मदेव था, जो एक अत्याचारी व कामुक शासक था। प्रजा उसके अत्याचारों से तस्त थी। जागरों में इसे वीरमदेव या वीरदेव कहा जाता है। • जियारानी की लोकगाथा के अनुसा...

नानकमत्ता साहिब गुरुद्वारा, उत्तराखंड

नानकमत्ता साहिब गुरुद्वारा, उत्तराखंड नमस्कार दगड़ियों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में उत्तराखंड में सिखों के तीर्थ स्थल नानकमत्ता साहिब गुरुद्वारा के बारे में बताएंगे। नानकमत्ता साहिब गुरुद्वारा- श्री नानकमत्ता साहिब गुरुद्वारा सिखों का एक पवित्र तीर्थ स्थल मंदिर है, नानकमत्ता साहिब उत्तराखंड के जिलें उधमसिंह नगर के खटीमा क्षेत्र में देवहा जल धरा के किनारे स्थित हैं। यह स्थान सिखों के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में से एक है। नानकमत्ता गुरुद्वारे का निर्माण सरयू नदी पर किया गया है और नानक सागर डेम पास में ही स्थित है, जिसे नानक सागर के नाम से जाना जाता है।  नानकमत्ता साहिब वह पवित्र स्थान है जहाँ सिक्खों के प्रथम गुरू नानकदेव जी और छठे गुरू हरगोविन्द साहिब के चरण पड़े और यह राज्य में तीन सिख पवित्र स्थलों में से एक है, अन्य पवित्र स्थानों में गुरुद्वारा हेम कुंड साहिब और  गुरुद्वारा रीठा साहिब हैं। तीसरी उदासी के समय गुरू नानकदेव जी रीठा साहिब से चलकर सन् 1508 के लगभग भाई मरदाना जी के साथ यहाँ पहुँचे।  नानकमत्ता साहिब गुरुद्वारा का इतिहास- श्री नानकमत्ता साहिब गुरुद्व...