Ads Top

उत्तराखंड के पारंपरिक आभूषण और उनसे जुड़ी मान्यताएं | Traditional Jewellery of Uttarakhand

उत्तराखंड के पारंपरिक आभूषण और उनसे जुड़ी मान्यताएं | Traditional Jewellery of Uttarakhand

नमस्कार दगड़ियों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में उत्तराखंड के पारंपरिक आभूषण और उनसे जुड़ी मान्यताएं के बारे में बताएंगे।


उत्तराखंड में कुछ विशिष्ट आभूषण होते हैं जिनका यहां की परंपराओं और संस्कृति से गहरा नाता है। यहां पर इन आभूषणों की विस्तार से जानकारी दी गयी है।

उत्तराखंड राज्य के प्रमुख आभूषण-

उत्तराखंड राज्य के प्रमुख आभूषण महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले मुख्य आभूषण-


माथे पर पहने जाने वाले आभूषण-

◆  शीशफूल- 


शीशफूल महिलाओं द्वारा विशेष अवसरों पर पहने जाने वाला आभूषण है जो बालों और माथे के बीच की जगह पर लगाया जाता है इसे हल्की जंजीर और हुक की सहायता से पहना जाता है। यह प्रायः 4-5 तोले का होता है। आजकल बॉलीवुड में भी ऐतिहासिक परंपराओं को दर्शाने वाली फिल्मों में रानी, महारानी का किरदार निभाने महिलाओं के सर पर यह देखा जा सकता है।

◆  बंदी- 


बंदी शीशफूल की भांति प्रतीत होने वाला आभूषण है। यह भी माथे पर पहना जाता है किंतु शीशफूल की तुलना में यह अधिक मोटा अधिक भारी और आकार में भी बड़ा होता है यह कम से कम 50 से 70 सेंटीमीटर लंबाई का पट्टीनुमा आभूषण था जो प्रायः चांदी से बनाया जाता था यह आभूषण अधिक प्रचलन में नहीं है।

◆ सुहागबिन्दी- 


बिंदी सुहागिन महिलाओं द्वारा प्रयोग किये जाने वाला आभूषण है। जोकि सुहाग का प्रतीक मानी जाती है। यह मांग टीके की भांति जंजीर युक्त होता है किंतु आगे से इसका आकार एक गोले की तरह होता है जिसके बीच में नग जड़े होते हैं। यह प्रायः आधे से 1 तोले भार की होती है। अब इसके विकल्प के रूप में वर्तमान समय में छोटी बिंदी इस्तेमाल की जाती है।

कानों पर पहने जाने वाले आभूषण- 

◆  मुर्खली- 


मुर्खली अपने अनुसार सोने या चांदी की बनाई जा सकती है। यह मूल रूप से चांदी की बालियाँ होती है। जिसे कानों के ऊपरी हिस्से में पहना जाता है।

बुजनी- करनफूल के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है ओर जिसके नीचे झुमका भी लटकाया जाता है। इसे प्रायः ब्याही स्त्रियाँ पहनती हैं।

तुग्यल/तुग्याल/तुग़ल्या- 

यह आभूषण सोने अथवा चांदी से बनाया जाता हैंल। आकार में यह गोल तथा चपटी पट्टी के आकार का होता है जिस पर लाल-सफेद नगीने बड़े होते हैं यह आभूषण प्रायः कुमाऊं क्षेत्र में अधिक प्रचलन में है।

मुनाड- मुनाड ( कुमांऊ में पुरूषों  द्वारा कान में पहने जाते है

नाक पर पहने जाने वाले आभूषण-

◆ फूल/ फुल्ली/ फूली/ लौंग- 

नथ को हमेशा नहीं पहना जा सकता है इसलिए इसके विकल्प के रूप में फूल अथवा फुल्ली अथवा प्रसिद्ध नाम लौंग का प्रयोग किया जाता है, यह हर समय पहनी जा सकती हैं। क्योंकि यह लौंग के फूल की तरह होती है इसलिए इसे लौंग कहा जाता है। आभूषण 100 मिलीग्राम से लेकर 2 ग्राम तक का होता है यह आभूषण नाक के बाई तरफ के हिस्से को छिदवाकर पहना जाता है।

◆ नथुली- 

सुहाग का प्रतीक के रूप में जाने जाना वाला यह आभूषण कुमाऊँ और गढ़वाल दोनों मण्डलों में प्रमुख है। यह लगभग 10 सेंटीमीटर अर्धव्यास का गोलाकार छल्लेनुमा आकृति का होता है जिसके अंदर की तरफ मोर की आकृति पर मीनाकारी होती है और निचे की तरफ लाल-हरे रंग के सितारे नथ की क्षमता के अनुसार जड़े (लगाए) जाते हैं। यह प्रायः 3 तोले से लेकर 5 तोले तक की होती है और नाक पर पड़ने वाले भार को कम करने के लिए इसको एक चांदी की क्लिप युक्त जंजीर से बालों के सहारे लगायी जाती है। गढ़वाल में टिहरी गढ़वाल की नथ काफी प्रसिद्ध है। 

◆ बुलांक- 

बुलांक नाक में पहना जाता है। इसको विवाहित स्त्रियां पहनती हैं।

गले पर पहने जाने वाले आभूषण-

तिलहरी- 

तिलहरी के बारे में​ इस भारी नेकलेस को पॉटी टिल्हरी कहा जाता है और ट्रेडिशनल रूप से नेपाली महिलाओं द्वारा विवाहित स्थिति के संकेत के रूप में पहना जाता है। यह मूल 24 कैरेट गोल्ड प्लेटेड ज्वेलरी की तरह दिखता है। तिलकारी में एक सुनहरा आभूषण होता है, जो अपने उत्सव के साथ उनकी सुंदरता का प्रतिनिधित्व करता है। अवसरों या पार्टियों पर नेपाली विवाहित महिलाओं द्वारा तिलहरी पहना जाता है तिलहरी में एक गोल्डन ऑर्नामेंट है, जो उनके गेटअप के साथ उनकी सुंदरता का प्रतिनिधित्व करता है। यह महिलाओं के लिए कास्ट्यूम, साड़ी को सूट करता है। यह आमतौर पर लंबा होता है जो उनके पेट तक उनकी गर्दन से आता है। इसे साइड बैग की तरह पहना जाता है। नेपाली महिलाओं के वॉर्डरोब में इसका बहुत महत्व है।

चन्द्रहार- 

यह सोने की चार-पाँच चैन को एक के ऊपर एक जोड़ कर सोने के ही फूल से जोड़ा जाता है और एक माला का रूप दिया जाता है चार-पाँच चैन लगने के बाद नीचे से इसका आकर चाँद की तरह दिखायी देता है। जिस कारण इसे चंद्रहार या चंद्रोली भी कहते हैं।

लाकेट- 
लाकेट एक बहु प्रचलित आभूषण है जोकि प्रायः सोने का बनाया जाता है यह केवल संपन्न परिवारों द्वारा ही बनवाया जाता है क्योंकि इसका भार लगभग 10 तोले से लेकर 30 तोले तक होता है।

हंसुला / हँसुली- 

यह आभूषण प्रायः चांदी से बनाया जाता है जिसका भार 20 तोले से लेकर 50 तोले तक होता है यह आभूषण संपन्न परिवारों द्वारा ही प्रयोग में लाया जाता है। यह आभूषण काफी लोकप्रिय आभूषणों में गिना जाता है। बड़े बुजुर्गों द्वारा ऐसा सुना जाता है कि यह आभूषण सगाई अथवा मंगनी के वक्त पहना जाता था और यह आभूषण उस वक्त बहुत कम लोगों के पास होता था। किंतु जिस किसी के पास होता था वह सगाई के वक्त अपनी हँसुली को दे दिया करते थे।

गुलबंद- 

गुलबंद तीन सेंटीमीटर चौड़े मखमली कपड़े अथवा सनील के पट्टे पर लगभग एक तोले से लेकर 3 तोले तक के स्वर्ण द्वारा डिजाइन किया गया एक पट्टे नुमा आभूषण होता है। यह गले के हिसाब से सुनार द्वारा लगभग पूर्णतः सटीक बनाया जाता है। उत्तराखंड की अलग-अलग क्षेत्रों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। यह सुहाग का प्रतीक माना जाता है किंतु अब वर्तमान में इसके स्थान पर मंगलसूत्र ने ले लिया है।

चरे / चर्यो / चर्-यो- 

यह है एक तोले से लेकर 3 तोले सोने तथा दो तोले से लेकर 4 तोले चांदी का भी बनाया जाता है। यह सुहाग का प्रतीक होता है और इसको उतारना अशुभ माना जाता है इसने चार्ली पुथ के दाने जुड़े होते हैं। यह एक माला की तरह दिखाई देता है। यह आभूषण केवल विवाहित महिला ही पहनती हैं। क्योंकि यह सुहाग का प्रतीक है इसलिए एक दूसरे चर्यो पहनना अच्छा नहीं माना जाता है।


कमर पर पहने जाने वाले आभूषण-

◆ कमर ज्यौड़ि

तगडी (तिगडी)- 

यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न नाम से जाना जाता है किंतु यह एकमात्र आभूषण है जो कमर पर पहना जाता है इसलिए सामान्य रूप से इसको कमरबंद के नाम से भी जाना जाता है। मानक रूप से इसका भार 30 तोले से लेकर एक किलोग्राम तक हो सकता है। यह कमर को गिरे हुए रहता है तथा इस पर गोलाकार तथा चोकोर कईं टिक्के लगे होते हैं। इस पर कई लड़ियाँ लगी होती है। यह विशेष अवसरों पर पहना जाता है।

हाथ पर पहने जाने वाले आभूषण-

◆ धगुला- 

इसे भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। यह सोने अथवा चांदी में रागे को मिलाकर तैयार किया जाता है। यह आभूषण क्षमता के अनुकूल बनाया जाता है। चांदी के धगुले का भार लगभग 10 तोले से लेकर 50 तोले तक हो सकता है। यह केवल देवीय कार्यों में देखने को मिल जाता है।

गुंठी/ अँगूठी/ गुठ्ठी/ मूंदड़ी/ मुद्रिका/ मनुड़ी-

सामान्यत यह अंगूठी के नाम से ही प्रसिद्ध है। यह सामान्य रूप से आधे से लेकर 1 तोले चांदी अथवा सोने से तैयार की जाती है। यह अन्य धातुओं से भी बनाई जाती है। वर्तमान समय में अंगूठियों का इस्तेमाल एक फैशन के तौर पर किया जाता है। किंतु सगाई के समय इनका महत्व बहुत अधिक होता है। सगाई के समय लड़का लड़की को और लड़की लड़के को अंगूठी पहना कर अपने इस पवित्र रिश्ते की शुरुआत करते हैं।

ठ्वाक- 

यह कलाई से लेकर कोहनी तक पहने जाने वाला आभूषण है। यह चांदी से बनाया जाता है। आकार में यह एक खोखले सिलेंडर की भांति दिखाई देता है। वर्तमान में इसका प्रचलन लुप्त हो चुका है।

कलाई पर पहने जाने वाले आभूषण-

◆ पौछी (पहुंची)/ पौंजी/ पौंची- 

यह आभूषण हाथ की दोनों कलाइयों पर पहना जाता है इसका आकार पट्टी नुमा होता है। इसमें 3 से लेकर 5 पंक्तियों की लड़ियां होती हैं। और इस में प्रयोग किए जाने वाले दाने का आकार शंकु जैसा होता है। यह कम से कम 20 तोले से लेकर 30 तोले तक भार का होता है।

बाजू पर पहने जाने वाले आभूषण-

◆ गोंखले- 

सामान्यतः यह चांदी से बनाएं जाते हैं किंतु पुराने समय में यह है चांदी के 5 से लेकर 7 सिक्कों द्वारा अथवा पांच से सात अठन्नीयों को जंजीर नुमा आकृति में पिरोकर तैयार किया जाते थे। इनको दोनों बाजू पर पहना जाता है इसलिए इनका नाम बाजूबंद भी है। यह अक्सर विशेष प्रयोजनों पर ही पहना जाता है।

पैरो पर पहने जाने वाले आभूषण-

◆ पौटा- 

यह आभूषण पांव की शोभा और अधिक बढ़ाते थे। पांव की एड़ी से लेकर पंजे तक यह घुमावदार होते थे इसके पीछे के भाग में गोल सिक्के की आकृति बनी होती थी इनका समग्र भार लगभग 100 ग्राम से लेकर ढाई सौ ग्राम तक होता था।

झांवर- 

यह दोनों पिंडलियों पर पहने जाने वाला आभूषण है। सामान्य रूप से इसका भार सौ सौ ग्राम रखा जाता है। यह अंदर से खोखले होते हैं और इनके अंदर छोटे-छोटे बीज अथवा छोटे छोटे पत्थर डाले जाते हैं ताकि इनसे छम छम की ध्वनि उत्पन्न होती रहे। वर्तमान में यहां प्रचलन में नहीं है। क्षेत्रों की बोलियों की भिन्नता के अनुसार इसको अलग-अलग नामों से जाना जाता है।

बिछुवा- 

यह दोनों पैर अंगूठे के बाद की दोनों उंगलियों में पहने जाने वाला आभूषण है। इनका इस्तेमाल केवल सुहागिन स्त्रियां ही करती हैं।

पांजेब/ पाजेब/ जेवरी /पैजबी- 

पुराने समय में यह एक चौड़ी पट्टी के रूप में होती थी जिस पर छोटे-छोटे बहुत सारे घुंगरू बंदे होते थे। और इन्हें पहनकर चलने पर बहुत ही मधुर ध्वनि उत्पन्न होती थी। वर्तमान में यहां चलन में नहीं है। इनकी जगह अब छोटी पायल अथवा जंजीर ने ले ली है।

लच्छा- यह एक लड़ी दार आभूषण होता था। इसमें कम से कम 5 से लेकर 7 लड़ियाँ होती थी। जो एक-दूसरे से हुक द्वारा जुड़ी रहती थी। सामान्य रूप से इनका भार सौ सौ ग्राम होता था। वर्तमान में यहां लुप्त हो चुका है।

कण्डवा- इनको कड़े के नाम से भी जाना जाता है सामान्य रूप से इनका भार 500 ग्राम से लेकर एक किलोग्राम तक हो सकता है। चिन्ह का प्रयोग केवल फ्रॉड महिलाओं द्वारा ही किया जाता है।

उम्मीद करते है, आपको पोस्ट पसन्द आयी होगी।

उत्तराखंड के इतिहास, सांस्कृतिक, साहित्यिक, उत्तराखंड के सौंदर्य, प्राचीन धार्मिक परम्पराओं, धार्मिक स्थलों, खान-पान, दैवीक स्थलों, धार्मिक मान्यताएँ, संस्कृति, प्रकार्तिक धरोहर और लोक कला के साथ-साथ काव्य और कहानी संग्रह के बारे मेंं विस्तार पूर्वक में जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे

YOUTUBE CHANNEL को जरूर SUBSCRIBE करें।

Youtube Channel Link-

https://youtube.com/channel/UCBMy5LvKQV0mSybB806pgHw









कोई टिप्पणी नहीं:

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.

Blogger द्वारा संचालित.