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न्याय देवता श्री गोल्ज्यू ( गोलू ) कथा

न्याय देवता श्री गोल्ज्यू ( गोलू ) कथा


।। ॐ श्री गोल्ज्यू देवाय नमः ।। 
।। ॐ श्री गोल्ज्यू कथा ।। 


यह कथा उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले की है । चम्पावत का प्राचीन नाम कुंम हैं । काली नदी होने के कारण इसे कुंमु काली भी कहते है । कुंमु में उस वक्त शूरवीर शासके राजा तलरायी की राजधानी धूमागढ़ श्री राजा तलरायी ने प्रजा के हित में अनेक कार्य किये थे । राज तलरयी ने प्रजा की सुविधा के लिए कई धर्मशालाओं , मंदिरों और पानी पीने के लिये प्याऊ का निर्माण कराया था । राजा तलरायी ईश्वर के परम भक्त थे । प्रतिदिन सुबह उठकर पूजा - पाठ एवं दान - पूण्य किया करते थे । ईश्वर की कृपा से राजा तलरायी को पुत्र रल प्राप्ति हुई जिसका नाम राजकुमार हलरायी रखा गया । 

राजकुमार हलरायी ने बड़े होने पर शासन का कार्य भार संभाला एवं अनेक धर्मकार्य किये । राजा हलरावी का विवाह हुआ और रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया , जिसका नाम राजकुमार झलरायी रखा गया । राकुमार झलरायी की आयु , विद्या अर्जित करने की हुई तो वह अन्य बालकों के साथ साहित्य लेखन और खेलकूदं की शिक्षा प्राप्त करने लगे , साथ ही राज - काज और युद्ध की शिक्षा भी ग्रहण की । शिक्षा - दीक्षा समाप्त होने के पश्चात राजकुमार झलरायी ने शासन की बागडोर संभाली और अपने पूर्वजों की तरह एक कुशल राज सिद्ध हुए । राजा झलरायी विवाह योग्य हो गये जो उनके लिए सुयोग्य कन्या खोजी जाने लगी और राजा झलरायी का विवाह धूम - धाम से सम्पन्न हुआ । उनके राज्य में प्रजा सब प्रकार से सुखी थी । 

किसी को किसी प्रकार का कष्ट न था और राजा का जीवन भी सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था । परन्तु किसके जीवन में क्या घटना घटित होनी है यह कोई नहीं जानता । कई वर्ष बीत गये परन्तु रानी की कोई सन्तान नहीं हुई । राजा झलरायी अब चिन्तित रहने लगे । राजा यह सोचकर व्यग्र हो जाते कि वंश आगे कैसे बढ़ेगा ? एक दिन राजा राजदरबार में बैठे थे , तभी राजपुरोहित बोले- " हे राजन ! आपकी समस्या का हमने एक उपाय सोचा है । " राजा बोले " कैसा उपाय "  
राजपुरोहित बोले " हमने यह उपाय सोचा है कि आपको दुसरा विवाह कर लेना चाहिए ।''

राजा ने कहा " हे राजपुरोहित ! यदि दूसरा विवाह करने से हमारी समस्या का समाधान हो सकता है तो में विवाह करने के लिए तैयार हूँ । और इस प्रकार राजा का दूसरा विवाह सम्पन्न हुआ । कई वर्ष बीत गये परन्तु दूसरी रानी की भी कोई सन्तान नही हुई । 

राजा झलरायी की समस्या ज्यों की त्यों बनी रही । राजा झलरायी ने राजपुरोहित के परामर्श से व अपने वंश वृद्धि की इच्छां से एक के बाद एक सात विवाह किये । सातों रानियाँ एक से बढ़कर सुन्दर थी , परन्तु कोई भी रानी राजा को सन्तान न दे पायी । 

राजा झलरायी की उम्र भी अधिक हो गयी थी । चिन्ता के कारण उनके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लगी थी । प्रसन्न रहना तो जैसे राजा झलरायी भूल ही गये थे । हर वक्त चिन्ता के सागर में डूबे रहते थे । उनकी एक ही इच्छा थी कि उनकी गोद में उनका बालक खेले , अपनी किलकारियों से महल को गूंजित कर दे , अपनी बातों से सबका मन मोह ले । परन्तु राजा को अपने यह सभी सपने बिखरते हुए नजर आ रहे थे । 

राजा ने पुत्र प्राप्ति की कामना से सभी मंदिर पूजे , अनेक यज्ञ किये , जिसने जो उपाय बताये सभी किये परन् तु उनकी समस्या का कोई समाधान नहीं हुआ । राजा प्रायः सोचते न जाने किस पूर्व जन्म के कर्म के कारण यह दुःख प्राप्त हो रहा है । एक दिन राजा राजसभा में बैठे थे तभी राजा के महल में काशी के एक विद्वान साधु पधारे । राजा झलरायी ने साधु महाराज का स्वागत किया । राजा को दुःखी देखकर साधु ने कहा- " हे राजन ! आप चिन्ता मग्न क्यों है ? " 

राजा ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उत्तर दिया- " महात्मा जी ! आप सब कुछ जानते है मैं क्या कहूँ , यह कहते ही राजा की आँखों में अश्रु बहने लगे और राजा झलरायी साधु को आत्मकथा सुनाने लगे । साधु ने राजा की आत्मकथा सुनी और बोले- " हे राजन ! यदि तुम मेरे कहने पर चलो तो तुम्हारे सभी दुःख दूर हो जायेंगे और तुम्हें अत्यन्त तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी , जो युगो - युगों तक पुज्यनीय होगा । '' 

राजा ने साधु से कहा- " हे साधु महाराज आप उपाय बताइये मैं अवश्य ही आपके कहने पर चलूँगा । साधु महाराज बोले- “ हे राजन ! तुम्हें आठवाँ विवाह करना होगा, जिससे तुम्हारी सभी बाधाएं दूर होगी" और तुम्हें सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी।

साधु ने पुनः कहा " राजन् अब हम काशी को प्रस्थान करेंगे। राजा ने साधु को प्रणाम किया और साधू का आशीर्वाद प्राप्त किया । एक दिन राजा शिकार खेलने वन में गये थे एक मृग का पीछे करते - करते राजा व सैनिकं बहुत दूर निकल गये थे । जिस मृग का पीछा राजा कर रहे थे , अब वह मृग भी राजा को दूर - दूर कम दिखायी नहीं दे रहा था । सुबह से दोपहर हो गयी थी परन्तु वे मृग का शिकार नहीं कर पाये । 

राजा और राजा के सैनिक बहुत थक गये थे । अतः उनकी विश्राम करने की इच्छा हुयी । अचानक राजा व राजा के सैनिकों ने देखा कि जंगली भैंसे आपस में लड़ रहे है उन दोनों भैंसो को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वे दोनों एक दूसरे का वध करके ही इस युद्ध का अन्त करेंगे । दोनों भैंसो की सीगों से रक्त बह रहा था और लड़ते - लड़ते दोनों भैंसो ने एक दूसरे की सीगें तोड़ दी थी । राजा झलरायी ने अपने सैनिकों सहित उन भैंसो का छुड़ाने का बहुत पयत्न किया परन्तु वे उन्हें छुड़ा नहीं पाये और उन्त में थक कर वहीं बैठ गये । राजा अपने सैनिकों से कहने लगें " इन भैंसो का छुड़ाना असम्भव है जब तक लड़ते - लड़ते इन दोनों भैंसे किसी एक के प्राण नहीं चले जाते तब तक इनका युद्ध समाप्त नहीं होगो । न जाने इन दोनों में क्या बैर है ? " दोपहर हो गयी थी , राजा प्यास से व्याकुल हो रहे थे , राजा ने सेनापति को आदेश दिया कि वो जल का प्रबन्ध करें सेनापति सैनिकों के साथ निर्जन वन में जल की तलाश करने लगे । 

कुछ देर पश्चात् सेनापति को दूर पहाड़ियों पर जल प्रपात दिखायी दिया और सेनापति अपने सैनिकों के साथ उस ओर आगे बढ़े जहाँ उन्हें जल प्रपात दिखायी दे रहा था । सैनिक व सेनापति जैसे ही जल उस प्रपात कि निकट पहुँचे उन्होनें देखा कि एक अत्यन्त रूपवती कन्या मटके में जल भर रही है । तभी सेनापति हे देवी ! आप इस निर्जन वन में क्या कर रही हैं ? उस कन्या ने कहा- " मैं तो जल लेने आयी हूँ , परन्तु आप यहाँ किस प्रयोजन से आये हों ? और कहा से आये हो ? " 

सेनापति ने कहा- " हम धूमागढ़ नरेश राजा झलरायी के सेनापति हैं । एक मृग का पीछा करते - करते हम इतनी दूर निकल आये है । " इस प्रकार सेनापति ने जंगल में घटी घटना को उस कन्या को बतलाया । कन्या ने कहा- " तुम योद्धा होकर भी दो भैंसो को नही छुड़ा पाये कैसे योद्धा ने कहा हो तुम ' ' सेनापति ने कहा- ' ' हे देवी ! पहले हमें यह कार्य सरल प्रतीत हुआ परन्तु जब हमारे राजा और हमने जंगली भैंसों को छुड़ाने का प्रयास किया तो हम असफल रहे । ' ' हे देवी ! आप हमारे साथ उस स्थान पर चलिए जहाँ वो जंगली भैंसे आपस में लड़ रहे हैं , जब आप वह भंयकर दृश्य देखेंगी तो आपको यह समझने में तनिक भी विलम्ब नहीं होगा कि उन दोनों भैंसो को छुड़ाना कितना मुश्किल कार्य है । " ' कन्या ने कहा- " हे सेनापति ! 

मैं अवश्य आपके साथ उस स्थान पर चलूंगी और यह देखूगी कि यह कैसा युद्ध है , जिसको रोक पाने पर आप जैसे वीर योद्धोओं को असम्भव प्रतीत हो रहा है । उसके पश्चात सेनापति व सैनिकों ने जल पिया और राजा के लिये जल लेकर उस ओर प्रस्थान किया जहाँ राजा उनकी प्रतिक्षा कर रहे थे । कुछ समय पश्चात सेनापति , सैनिक और कन्या राजा के समीप पहुँकर कन्या ने राजा को प्रणाम किया । सेनापति ने कहा- " हे राजन ! यह कन्या हम से कह रही थी कि तुम कैसे योद्धा हो जो दो लड़ते हुए भैंसो को नही छुड़ा सकते हो ? 

राजा ने कहा- दूसरों पर व्यंग करना आसान है , यदि तुम इतनी ही साहसी हो तो इन भैंसों को छुड़ा सकती हो ? । वह कन्या कुछ न बोली और भैंसो के नजदीक पहुँच गयी । उस कन्या ने अपना साहस दिखाया और आँखों में क्रोध भरे दोंनों भैंसो की सीगें पकड़कर उन्हें अलग झटका दिया । दोनों भैंसें अलग - अलग दिशाओं में भाग गयी । यह दृश्य देखकर राजा और सैनिक अवाक रह गये । जिन भैंसों को छुड़ाने के प्रयास में वह थक कर चूर - चूर हो गये थे , उन्हें इस कोमल कन्या ने क्षण भर में छुड़ा दिया था । 

राजा झलरायी ने उस कन्या से उसका परिचय जानना चाहा और कहा हे कन्या ! तुम कौन हो ? हमें अपना परिचय दो । " कन्या ने अपना परिचय देते हुए कहा , " हे राजन ! मैं पंचनाम देवताओं की बहन कलिंका हूँ । राजा ने कन्या के वचन सुनकर ऐसे मन्त्र मुग्ध हो गये जैसे कि राजा संगीत का कोई मधुर राग सुन रहे हों । चन्द्रमा के समान कान्ति वाला का मुखमण्डल , मृग के.समान नयनों वाली और मधुर वाणी से सुसोभित कन्या को राज एकटक देखते रहे और विचारों में खो कर सोचने लगे- " यह सुन्दर कन्या मेरी आंठवी रानी बनने योग्य है , यह साहसी कन्या ही मेरे वीर पुत्र को जन्म देने योग्य है , परन्तु क्या वह सर्वगुण सम्पन कन्या मेरे विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करेंगी " राजा झलरायी के मन में अर्न्तद्वन्द चल रहा था , कि यह कन्या विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करेगी या फिर अस्वीकार करेगी । 

राजा का यह विचार उचित था क्योंकि कन्या विवाह योग्य थी और राजा से उम्र में छोटी थी । कन्या की उम्र सोहल वर्ष थी और राजा झलरायी की उम्र पचास वर्ष थी । कलिंका उनसे छोटी थी । राजा के सात विवाह हो चुके थे और बढ़े प्रतीत होते थे । परन्तु राजा को साधू महाराज के कहे हुए वचन भी याद रहे थे कि- " उनकी आंठवी रानी पुत्र को जन्म देगी । राजा - को विचारों में खोया हुआ देखकर कलिंका ने राजा से कहा हे राजन ! आप किन विचारों में खोये हुए है " राजा ने अपने मन का अर्न्तद्वन्द समाप्त करते हुए कन्या से कहा- ' हे पंचनाम देवो की बहन कलिंका में तुमसे विवाह करना चाहता हूँ और तुम्हें अपनी आंठवी रानी बनाना चाहता हूँ । कृपया धुमागढ़ नरेश झलरायी का विवाह प्रस्ताव स्वीकार करें । 

कलिंका ने उत्तर दिया- हे राजन ! मैं अपने चाचा के साथ रहती हूँ जो कुष्ट रोग से पीड़ित है । कहने को तो वह मेरे चाचा है परन्तु वह मेरे पिता के समान है , उन्होनें ही मेरा लालन- पालन किया है और मेरा विवाह किसके साथ होगा इसका निर्णय करने का अधिकार उन्ही को है । यदि आप मुझसे विवाह करना चाहते है तो आपको उनकी आज्ञा लेनी होगी । राजा ने कहा " ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा है तुम्हारे चाचा की अनुमति मिलने पर ही तुमसे विवाह करूंगा । " राजा झलरायी ने सैनिकों के साथ कन्या की कुटिया की ओर प्रस्थान किया । राजा झलरायी कलिंका के चाचा की सेवा करने लगे । एक दिन राजा कलिंका के चाचा को अपना जीवन वृतान्त सुनाया और कलिंका से विवाह की इच्छा को उन्हें बतलाया।

कलिंका के चाचा यह विवाह प्रस्ताव सुनकर प्रसन्न होते हुए बोले- " राजन ! मुझे कलिंका के विवाह की चिन्ता हर क्षण रहती है आपने मेरी बहुत चिन्ता दूर कर दी । मै आपके इस विवाह प्रस्ताव को स्वीकार करता हूँ और राजा के हाथ में कलिंका का हाथ देते हुए उन्हें आर्शीवाद दिया- हे राजन ! आज से मेरी पुत्री कलिंका तुम्हारी धर्मपपत्नी है । तुम्हारी सभी इच्छाएं पूर्ण हो , सदैव प्रसन्न रहो । यह कथन कहते ही कलिंका के चाचा ने प्राण त्याग दिये , ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अपनी पुत्री समान भतीजी का विवाह करने ' के लिए ही वह जी रहे थे और यह इच्छा पूर्ण होते ही उन्हें संसार से विदा ले ली । 

राजा झलरायी आठवीं रानी को ब्याह कर महल ले आये । सम्पूर्ण महल में यह समाचार मिल गया था कि राज झारलरायी ने आठवां विवाह कर लिया है । महल में लोग तरह - तरह की बाते करने लगे कि सात रानियों से सन्तान न हुयी और अब राजा ने इतनी उम्र में आठवां विवाह कर लिया । सातों रानियों को रानी कलिंका से ईर्ष्या हो रही थी , परन्तु बाहर से प्रसन्ता का दिखावा करते हुए सातों रानियों ने राजा और रानी कलिंका का महल में स्वागत किया । रानी कलिंका राजा झलरायी की प्रिय रानी थी , राजा अपना अधिक समय रानी कलिंका के साथ व्यतीत करने लगे । यह देखकर सातों रानियों की ईर्ष्या और भी बढ़ गयी थी । सातों रानियाँ रानी कलिंका से दूरी बनाये रखती और रानी के विरूद्ध षडयंत्र करती थी । परन्तु जिस प्रकार रानी कलिंका का मुख्यमण्डल सुन्दर था , उसी प्रकार उसका हृदय गंगाजल के समान पवित्र व निर्मल था । 

रानी कलिंका का हृदय दया के सागर से भरा था । रानी कलिंका सातों रानियों को अपने बड़ी बहनों की तरह मानती थी । राजा को साधू के कथन याद थे कि उन्हें अपनी आठवीं रानी के साथ भैरव का यज्ञ करना है और राजा झलरायी ने रानी कलिंका कि साथ मिलकर सम्पूर्ण विधि विधान के अनुसार भैरव यज्ञ पूर्ण किया । एक दिन वह दिन भी आ गया जिसकी प्रतीक्षा राजा व प्रजा को कई वर्षों से थी । राजा का शुभ समाचार प्राप्त हुआ कि रानी गर्भवती है । राजा झलरायी का मुखमण्डल चमक उठा । रानी से परामर्श करके राजा ने सरकारी खजाने से राज्यभर में रोगियों और गरीब लोगो को दान देने का आदेश दिया । पुत्र जन्म के लिए गायों को दान दिया । राजा ने इतना कभी किसी ने नहीं देखा । एक ओर राजा की प्रसन्नता की सीमा न थी।

दुसरी ओर सातों रानियों के लिए यह समाचार असहनीय था । रानी कलिंका राजा की प्रिय रानी तो थी ही परन्तु यह समाचार सुनकर राजा रानी कलिंका का और अधिक ध्यान रखने लगे । राजा ने सातों रानियों को भी आदेश दे दिया कि रानी कलिंका का विशेष ध्यान रखा जाये । रानी को किसी बात की कोई कमी नहीं होनी चाहिए । अपने क्रूर स्वभाववश सातों रानियाँ भीतर ही भीतर ईष्या की अग्नि में जल रही थी परन्तु बाहर से ऐसे दिखावा कर रही थी , मानो कि इन सातों रानियों को ही इस शुभ समाचार से सबसे अधिक प्रसन्ता हो रही है । परन्तु कोई भी उनके क्रूर और दुष्टता से भरी व्यवहार को समझने में असमर्थ था । 

सातों रानियों ने रानी कलिंका की सन्तान को गर्भ में ही नष्ट कर देने की योजना बनायी । परन्तु उन दुष्ट रानियों की सभी योजनायें असफल रही । अन्त में रानियों ने एक राजज्योतिष के साथ मिलकर एक षड़यत्र रचा और ज्योतिष को धन का लालच देकर राजा झलरायी और रानी कलिंका से यह कहलाया कि - " सन्तान के जन्म से सात दिनों तक रानी अपनी सन्तान को नहीं देख सकती अन्यथा दोनों की मुत्यु हो जायेगी । " राजा और रानी ज्योतिष की इस बात से सहमत हो गये और रानी ने सात दिनों तक अपनी सन्तान का मुख न देखने का निश्चय किया । धीरे धीरे समय व्यतीत होने लगा और न्याय देवता गोल्ज्यू के जन्म का समय नजदीक आने लगा । 

रानी को प्रसव पीड़ा होने लगी तो सातों रानियों ने रानी कलिंका की आँखों मे पट्टी बाँध दी । एक नया सिल - बट्टा उसी कक्ष में रख दिया और दरवाजा भीतर से बन्द कर दिया । रानी कलिंका ने सूर्य के समान कान्ति वाले पुत्र को जन्म दिया । यह क्षण बड़ा ही शुभ था । न्याय देवता गोल्ज्यू के धरती में अवतरित होने पर सभी देवी - देवताओं ने पुष्पों व शंखनाद से ईश्वर का स्वागत किया । 

साक्षात् भगवान का बाल रूप देखकर सभी देवी - देवताओं धन्य हो गये । परन्तु सातों रानियाँ ईर्ष्या के वशीभूत होकर प्रभु के बाल रूप को पहचानने में असमर्थ थी और यही उनका सबसे बड़ा दुर्भाग्य था । अब वह समय आ गया था , जब सातों रानियों ने अपने षडयंत्र को अन्तिम रूप देना था । एक रानी ने बालक का मुँह बन्द किया और बालक को निचली मंजिल में जहाँ गाय की गौशाला थी निर्दयता से फेंक दिया । रानियों ने कुछ दासियों के साथ मिलकर जो इस षडयंत्र में उनकी भागीदार थी वो फर्श का थोड़ा हिस्सा तोड़ दिया था । जिससे कि आसानी से बालक को फेंका जा सके और बालक को फेंकते ही दासियों ने पत्थर - मिट्टी से फर्श को लीप - पोतकर पहले जैसा कर दिया व दूसरी रानी ने तुरन्त रानी कलिंका के समीप सिल - बट्टा रख दिया । इतने नन्हें से बालक को इतनी निर्दयता से फेंकने में इन दुष्ट रानियों को जरा भी दया नहीं आयी । ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों इस रानियों के हृदय पत्थर के बने है । , जिसमें प्रेम , दया , करूणा व ममता जैसे कोई भाव नहीं थे । 

रानी के समीप सिल - बट्टे रखने के पश्चात एक रानी बोली- " हे प्रिय बहन तुम्हारे गर्भ से तो सिल - बट्टे पैदा हुए है " और यह कहते ही सातों रानियाँ एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगी । दो रानियाँ राजा को भी यह समाचार देने चली गयी कि रानी ने सिल - बट्टे को जन्म दिया है । रानी ने जैसे ही यह सुना रानी की आँखों से झर - झर अश्रु बहने लगे । इन अश्रुओ से रानी की आँखों से बंधी पट्टी भी पूर्ण रूप से भीग गयी थी । रानी कलिंका विलाप करने कहने लगी- " हे ईश्वर मुझसे ऐसा क्या अपराध हो गया जो आपने ऐसा दण्ड दिया कि मैंने इन पाषाणों को जन्म दिया है । इन सातों रानियों को स्त्री कहना भी पाप होगा । एक स्त्री तो वह होती जिसके हृदय में दया व ममता का वास होता है । 

इन रानियों के हृदय तो सचमुच पत्थर के ही थे । राजा ने जैसे ही यह सुना वह दुख के सागर में डूब गये और कहने लगे- “ हे प्रभु ! यह कैसा अन्याय है इतने वर्षों में आशा कि एक किरण नजर आयी और आपने मुझे पुत्र देने के बजाय पाषाण दे दिये । मुझसे ऐसा क्या पाप हो गया जिसके कारण मेरी पुत्र प्रप्ति की इच्छा पूर्ण नहीं हो पा रही है । " सम्पूर्ण राज्य शोकाकुल हो गया । सातों रानियाँ अपनी योजना पर बहुत प्रसन्न हो रही थी । रात्रि के अन्तिम प्रहर रानियाँ गौशाला में यह देखने गयी कि उसके शव को सुबह से पहले गौशाला से हटाना होगा । परन्तु जैसे ही उन्होंने गौशाला का दरवाजा खोला एक विस्मयकारी दृश्य देखा । रानियों ने देखा कि एक बाँझ गाय जिसके कई वर्षों से कोई बछड़ा नहीं हुआ है उसके थनों में दूध भरा हुआ है और वह नन्हा बालक गाय के थनों से दूध पी रहा है और वह गाय ममता से बालक को चाट रही है यह उस गाय के पुण्यों का फल था जो उसे साक्षात ईश्वर को दूध पिलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । 

रानियाँ कहने लगा कैसा चमत्कार हो गया , ये नन्हा बालक इस गौशाला में जीवित है और यह गाय दूध कैसे देने लगी । " जैसे ही रानियाँ गाय के पास से बालक को उठाने लगी , गाय उन्हें मारने लगी और जोरों से रम्भाने लगी । गाय को उस नन्हें से बालक से प्रेम हो गया था , मानो वह उसका बछड़ा हो । परन्तु रानियों ने तो बालक को बिच्छु घास में फेंक दिया । सात दिनों बाद रानियाँ देखने लगी कि अब तो बालक की मृत्यु हो गयी होगी , परन्तु जब बिच्छु घास में देखा तो बालक जीवित था और मुस्कुरा रहा था । रानियाँ कहने लगी कि ये बालक इतनी कटीली घास में कैसे जीवित है , उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था , परन्तु उन्होंने बालक को मार देने का प्रयास जारी रखा । 

बिच्छु घास को उठाकर बालक को नमक के ढेर में डाल दिया और सात दिनों बाद जब उन्होंने देखा वह नमक चीनी में परिवर्तित हो गया था और बालक जीवित था । फिर उन्होंने बालक को घने जंगल में यह समझकर छोड़ दिया कि कोई जंगली जानवर उस नन्हें बालक को अपना निवाला बना लेगा परन्तु सात दिनों बाद उन्होंने जंगल में जाकर देखा तो बालक जीवित ही था , रानियों ने बालक को मारने के कई प्रयास किये परन्तु सभी प्रयास व्यर्थ हो गये । अन्ततः रानियों ने कालू नामक एक लोहार से एक मजबूत बक्सा बनवाया और बालक को उस बक्से में डालकर सात मजबूत ताले लगा दिये और आधी रात को सातों रानियाँ बक्से को फाड़कर काली नदी की ओर जाने लगी और पदी के समीप पहुँकर उस बक्से को नदी में फेंक दिया । काली नदी के तुफान में बक्सा चट्टनों से टकराते हुए बहता हुआ गया । 

सातों रानियाँ अब अत्यधिक प्रसन्न हो रही थी कि उन्हें पूर्ण विश्वास था कि उब इस बालक का जीवित बच पाना असंभव है । रानी कहने लगी- " हमने इतने मजबूत बक्से के अन्दर इस बालक को डाला है और सात ताले भी लगाये है , यह बालक इसी बक्से के भीतर दूध के अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा । हमारी योजना सफल रही बहना आओ चलो महल की ओर प्रस्थान करते है , और आज तो प्रसन्नता के कारण चैन की नींद आयेगी । यह कहकर सातों रानियाँ हँसने लगी और महल की ओर आने लगी । दूसरी ओर राजा झलरायी व रानी कलिंका अति दुखी थे । रानी यह सोचकर दुखी हो रही थी कि वह राजा की इच्छा पूर्ण नही कर पायी और यह सोचकर व्याकुल हो उठी कि उसने पुत्र को जन्म न दे पत्थरों को जन्म दिया है । 

परन्तु माँ के बच्चे कैसे भी हो उनके प्रति पाँ की प्रेम करने लगी , जैसे एक मा सन्तान का लालन - पोषण करती है , उसी प्रकार रानी कलिंका भी करने लगी । परन्तु माँ के बच्चे कैसे भी हो उनके प्रति माँ की ममता कभी कम नहीं होती , इसी तरह रानी कलिंका भी उनसे अपने बच्चों की तरह ही प्रेम करने लगी , जैसे एक माँ अपनी सन्तान का लालन - पोषण करती है , उसी कार रानी कलिंका भी करने लगी । राजा झलरायी की प्रसन्नता को कुछ अणों की ही थी । पाषाणों के जन्म के बाद वह पहले की ही तरह दुखी रहने लगे थे । अब तो उनके जीवन में कोई उम्मीद की किरण भी नहीं थी । परन्तु कहने को तो वह पाषाण उनकी सन्तान ही थी इसलिए उनका नामकरण संस्कार भी किया गया । 

सिल रूपी पुत्र का नाम हरूवा व बट्टे रूपी पुत्र का नाम कलुवा रखा गया । दूसरी ओर वह बक्सा जिसमें नन्हा बालक था , काली नदी से बहते - बहते दूर गोरी नदी के घाट पर पहुंच गया । गोरी नदी के घाट के किनारे पछुवारे प्रतिदिन अपना जाल बिछाया करते थे और पछलियां पकड़कर उन्हें बेचते थे । इसी प्रकार मछुवारे अपने परिवार का भरण पोषण करते थे आज भी मछुवारों ने अपना - अपना जाल नदी में बिछाया और उसके पश्चात मछुवारों ने अपना - अपना जाल ऊपर खीचने लगे तो उसे आभास हुआ कि कोई बड़ी मछली उसके जाल में फंस गयी है । 

परन्तु मछुवारा भाना उसे खीचने में उसमर्थ था तभी उसने अपनी मदद के लिए अन्य मछुवारों को बुलाया और फिर सभी ने मिलकर जाल को खीचने लगे और जाल को खींचकर किनारे तक ले आये मछुवारों ने देखा कि जाल में एक बड़ा बक्सा है जिसमें सात ताले लगे हुए है । 
सभी मछुवारे प्रसन्न हो ये कि सात ताले लगे हुए बक्से में जरूर खजाना होगा । और उनका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होगा । मछुवारों ने एक के बाद एक सात ताले तोड़ दिगे और जैसे ही उन्होनें बक्सा खोला , सभी मछुवारे स्तब्ध रह गये । बक्से में एक नन्हा बालक था । मछुवारे भाना की कोई सन्तान नहीं थी , भाना ने उसे अपनी गोद में उठा लिया और बालक को प्रभु का वरदान समझकर अपने घर ले आया और जैसे ही भाना की पत्नी ने उसे देखा तो पूछने लगी - यह बालक कौन है ? 

भाना ने सारा वृतान्त अपनी पत्नी को सुनाया , तो वह बोली- हमारी कोई सन्तान नहीं है इसलिए ईश्वर ने उस बालक को हमारे पुत्र के रूप में भेजा है । आज से यह हमारा पुत्र है हम इसका लालन - पालन करेगें । " और यह कह कर मछुवारे की पत्नी ने बालक को जैसे ही अपने हृदय से लगाया , उसके स्तनों से दूध स्फुटित होने लगा । यह मछुवारे भाना और उसकी पत्नी के पुण्यों का फल था जो भगवान गोल्ज्यू स्वयं उसके घर में पुत्र बनकर पधारे थे । निःसन्तान दम्पति बालक को पाकर अत्यन्त पसन्न थे । 

माता पिता ने अपने पुत्र के नामकरण संस्कार की योजन बनायी । ब्राहमणों ने बालक का गोरिया रख दिया क्योंकि यह बालक गोरी नदी में मिला था । माँ प्रेम से अपने पुत्र को गोलू कहकर पुकारती थी । बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान धीरे - धीरे बड़ा होने लगा गोरिया को उसके माता - पिता व गाँव वाले बहुत प्रेम करते थे । गोरिया की बाल - लीलाएं सभी का मन मोह लेती थी । अब बालक सात वर्ष का हो गया था । एक दिन नन्हे बालका ने स्वप्न में देखा कि उसकी माता कलिंका कितनी दुखी है और यह धूमागढ़ कहाँ है ? नन्हे बालक गोलू ने विचार किया कि धूमागढ़ को ढूंढने के लिए एक घोड़ा होना चाहिए जिस पर बैठकर वह धूमागढ़ को ढूंढ सके बालक गोलू राजा का पुत्र था और घोड़े की इच्छा स्वाभाविक भी था । 

बालक गोरिया की इच्छा थी कि उसके पास एक सफेद घोड़ा हो जिस पर सवारी करके वह उस जगह की खोज करेगा जो उसने स्वज में देखी थी । एक दिन गोरिया ने अपनी इच्छा को अपने पिता - माता के सपक्ष प्रकट किया । यह सुनकर भाना परेशान हो गया । यद्यपि मछुवारा भाना अपने पुत्र की सभी आंकाशाओं को पूर्ण करना चाहता था परन्तु उसके पास इतना धन नहीं था कि वह अपने पुत्र की इस इच्छा को पूर्ण कर पाये । 

बालक हर शाम को अपने पिता के घर आने पर पूछता है- पिताजी मेरा घोड़ा कहाँ है ? तो भाना निरूत्तर हो जाता था । एक दिन भाना और उसकी पत्नी ने विचार किया कि अपने पुत्र को वास्वविक घोड़ा तो हम नहीं दे सकते परन्तु लकड़ी का घोड़ा तो दे सकते है । वैसे भी प्रत्येक बालक की इच्छा खिलौनों से खेलने की होती है और हमारा पुत्र लकड़ी में बैठकर पसन्न हो जायेगा । माता - पिता के लिए अपने बच्चों की खुशी से बढ़कर कुछ और नहीं होता । उसकी सन्तान के चेहरे पर खुशी रहे तो माता - पिता भी प्रसन्न हो जाते हैं ।

सन्तान दुःखी हो तो वे भी दुःखी हो जाते है । अत : मछुवारे भाना ने अपने पुत्र के लकड़ी का घोड़ा बनवाया और उस घोड़े को घर ले आया । बालक गोरिया घोड़ा पाकर अत्यन्त खुश हो गया और पुत्र को प्रसन्न देखकर माता - पिता भी प्रसन्न हो गये । बालक घोड़ा मिलते ही उसमें सवार हो गया । बालक ने जैसे कहा चल मेरे घोड़े तो घोड़ा चलने लगा और हांकने पर वह सरपट दौड़ने लगा । सभी लोग यह देखकर चकित हो गये कि लकड़ी का घोड़ा कैसे चल रहा है सभी ओर चर्चा और उसका घोड़ा सरपट दौड़ता है । 

गोरिया अपने घोड़े पर सवार होकर दूर - दूर तक सैर करता था । एक दिन उपने प्रिय काठ के घोड़े पर सैर करते - करते गोरिया धूमागढ़ ( चम्पावत ) में पहुंच गया । गोरिया अपने घर से बहुत दुर निकल आया था । प्यास भी लगी थी , अतः पानी की खोज करने लगा । तभी उसे एक सरोवर दिखायी दिया जैसे ही वह सरोवर के निकट पहुंचा तो उसने देखा कि सात रानियाँ कुछ वार्तालाप कर रही है । संयोगवश सातों रानीयों अपने पापों का बखान कर थी कि किस तहत उन्होंने रानीयाँ कलिंका और राजा झलरायी के सुखी क्षणों को आजीवन के लिए दुख में बदल सभी रानियाँ यह कहकर हँसने लगी थी । गोरिया ने उनकी सभी बातें सुन ली थी । 

बालक गोरिया ने जा स्वज देखा था , वह सत्य सिद्ध हुआ और गोरिया को यह समझ आ गया । गोरिया ने एक योजना बनाई जिससे कि सातों रानियों के दुष्कर्मों का पता राजा को चल जाये । गोरिया अपने घोड़े को सरोवर के किनारे ले जाकर कहने लगा । हे मेरे प्रिय घोड़े तुम्हें बहुत प्यास लग गयी थी , अब तुम खुब पानी पीयो और अपनी प्यास को शान्त.करो । यह देखकर सारी रानियाँ हँसने लगी और बालक को सम्बोधित करते हुए कहने लगी हे मुर्ख बालक काठ का घोड़ा कैसे पानी पी सकता है। 

तुम ये मुर्खता पूर्ण कार्य क्यों कर रहे हो ? बालक मुस्कराते हुए कहने लगा । " क्यों नहीं पी सकता , लकड़ी का घोड़ा पानी , जिस प्रकार एक स्त्री पाषाणों ( सिल - बट्टे ) को जन्म दे सकती है तो उसी प्रकार से लकड़ी का घोड़ा भी पानी पी सकता है । " यह शब्द सुनते ही सातों रानियों के पैरों तले जमीन खिसक गयी । एक दूसरे को देखकर यह सोचने लगी यह राज इस बालक को कैसे पता चल गया और कहीं यह बात राजा का न पता चल जाये । इस डर से सातों ने अपने अपने मटके उठाये और महल की ओर जाने लगी । 

बालक गोरिया न अपने गुलेल से सभी रानियों के मटके तोड़ दिया । सातों रानियों को क्रोध आ गया और वह भागते - भागते राजा के पास गयी । और बालक गोरिया को दण्ड दिलाने के उद्देश्य से उसकी शिकायत करने लगी । बालक गोरिया को राजा के समक्ष लाया गया । सूर्य के समान तेजस्वी बालक को देखकर राज सोचने लगे कि " इनता तेजस्वी बालक कैसे कोई अपराध कर सकता है । परन्तु रानियों के द्वारा लगाये गये आरोपों के आधार पर राजा ने सच्चाई का पता लगाना चाहा । राजा ने कहा हे बालक ! क्या रानियों द्वारा लगाये गये आरोप सत्य है । ? गारिया ने कहा - " हे राजन ! मटके तोड़ने का आरोप सत्य है । 

अन्य आरोप असत्य है । " राजा ने कहा- " हे बालक ! तुमने रानिायों के मटके क्यों तोड़े ? बालक गोरिया ने कहा - " हे राजन ! मैं आपको सत्य के दर्शन कराना चाहात था और इन दुष्ट रानियों की दुष्टता आपको बताना चाहता था राजा ने कहा यह क्या कह रहे हो बालक ? बालक गारिया अब राजा को सभी वृतान्त सुनाने लगा कि कैस उसका जन्म हुआ और रानियों ने उसे मारने के उनेक प्रयास किये । पूर्ण वृतान्त सुनाने के बाद बालक गारिया ने कहा - ' हे राजन् ! मैं आपका पुत्र हूँ और रानी कलिंका मेरी माता है । ' यह सुनते ही सातों रानियाँ भय से थर - थर कांपने लगी- " यह पूर्णतया असत्य है । यह बालक आपको मनगढ़त कहानी सुनाकर आपकी अपार धन - सम्पदा व राजगद्दी को प्राप्त करने की इच्छा से यहाँ आया है । 

राजा ने कहा- " हे बालक ! तुम्हारी बातों का कोई प्रमाण नहीं जिससे हम यह माने कि तुम हमारे पुत्र हो , हमारे भाग्य में तो पुत्र सुख है ही नही और शायद तुम हमारे दुर्भाग्य के बारे में सभी कुछ जानते हो और राजगद्दी प्राप्त करने के उद्देश्य से यहाँ आये हो । बालक ने कहा- " हे राजन ! मैं अभी आपके सम्मुख यह प्रमाण प्रस्तुत करूंगा कि मैं ही आपका और रानी कलिंका का पुत्र हूँ । ' हे राजन ! कृपया माता कलिंका को राजदरबार में बुलाइये । ' राजा सेनापति से कह कर रानी कलिंका को दरबार में बुलाया । सातों रानियों के हृदय की धड़कने बढ़ने लगी थी । रानी कलिंका दुःखी अवस्था में राजदरबार में आयी ।

रानी के दरबार में आते ही बालक ने कहा- " हे माता कलिंका यदि आपका पुत्र हूँ और मेरे कहे वचन सत्य हैं तो आपके स्तनों से दूध की धारा मेरे मुख में प्रवेश करें । " बालक के यह वचन कहते ही माता कलिंका के स्तनों से दूध की धारा निकली और गोरिया के मुख में प्रवेश कर गयी। यह दृश्य देखकर सभी चकित रह गये । माता कलिंका की आँखो में अश्रु भरे अपने पुत्र के समीप गयी और उसे हृदय से लगा लिया । राजा भी अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे परन्तु उन्हें इस बात का क्रोध आ रहा था कि उनकी सातों रानियों ने उनके खुशी के क्षणों को दुःख में बदल दिया था और उनके पुत्र को उनसे दूर कर दिया था । 

सातों रानियों के अपने गुनाह स्वीकार कर लिये राजा ने उन्हें कठोर दण्ड दे दिया । उन्हें बालक गोरिया ने जब उन सातों को दण्ड से पीड़ित देखा तो राजा से उन्हें क्षमा कर देने की प्रार्थना की । राजा गोरिया से उसके निवास स्थान के बारे में पूछने लगे और मछुवारे भाना के घर की ओर अपने पुत्र और रानी के साथ प्रस्थान किया । राजा ने भाना को धन्यवाद किया कि उन्होंने उनके पुत्र का लालन - पालन किया । बालक गोरिया के बिना न ही मछुवारा व उसकी पत्नी रह सकते थे और ना ही राजा रानी रह सकते थे इसीलिए सभी लोग राजा के महल में मिल जुलकर रहने लगे । 

अपने पुत्र गोरिया के मिल जाने पर राजा ने रानी से कहा कि अब हमें अपना पुत्र मिल गया है तुम्हें इन पाषाणों ( सिल - बट्टे ) को फेंक देना चाहिए । रानी ने कहा- " हे महाराज सात वर्षों तक मैंने इनका लालन - पालन अपने पुत्रो की तरह किया है । और अब अचानक से मैं इनसे अपना मुंह कैसे फेर लूँ । नहीं का आह्वन करते हुए कहने लगी- " हे प्रभु यह सब आपकी ही लीला है , अब आप ही मेरी समस्या का सामाधान कीजिए " । तभी देव प्रकट होकर बोले देवी तुमने सिल - बट्टे को सात वर्षों तक अपने पुत्र की तरह प्रेम किया है और लालन - पालन किया है । हम तुम्हारे इन पाषाण रूपी पुत्रों के प्रति अगाध प्रेम से प्रसन्न है । ऐसा कहते ही देवों ने सिल और बट्टे में प्राण डाल दिये । रानी अपने पुत्रों हरूवा और कलुआ को मनुष्य रूप में देखकर प्रसन्न हो गयी । राजा कहने लगे- हे भगवान् आपकी लीला समझ पाना असंम्भव है एक वक्त था कि जब हम पुत्र प्राप्ति के लिए तड़पते थे और आज हमारे तीन पुत्र हमारे सपक्ष खड़े हैं , आपका धन्य हो भगवन । धीरे - धीरे तीनों बालक बड़े होने लगे । 

राजा भी बहुत वृद्ध हो गये थे , इसलिए शासन का कार्यभार युवराज गोलू देवता को सौंप दिया । कलुआ और हरूवा को मंत्री नियुक्त कर दिया गया । राजा गोलू देवता न्याय प्रिय राजा थे । सभी के साथ उचित न्याय करते थे । प्रजा उनके न्यायप्रिय शासन से प्रसन्न थी । दूर - दूर के लोग राज गोलू देवता के पास न्याय के लिए आते थे और सम्पूर्ण कुमाँऊ में न्यायप्रिय राजा के रूप में प्रसिद्ध हो गये । भगवान गोल्ज्यू ने सम्पूर्ण कुमाँऊ का भ्रमण किया और न्याय के दरबार लगाये और मुख्य - मुख्य स्थानों पर जहाँ गोल्ज्यू गये वहाँ - वहाँ उनके मन्दिर स्थापित किये गये है । इनमें से प्रमुख मन्दिर चम्पावत , घोड़ाखाल , चितई ( अल्मोड़ा ) विनायक आदि स्थानों पर स्थापित है । 

भगवान गोल्ज्यू सभी मनोकामना पूर्ण करते थे जो भी भक्त सच्ची श्रद्धा और भक्ति से उनके दर पर जाता है । कभी खाली हाथ नहीं लौटता और इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण लाखों की संख्या में गोल्ज्यू के दरबार में आने वाले भक्त है । प्रभु गोल्ज्यू से सच्ची भक्ति से प्रसन्न हो जाते है भक्तगण अपनी श्रद्धा से घंटिया , सोने व चाँदी के छत्र मनौती पूर्ण होने पर चढ़ाते है । कुछ लोग बकरों की बलि भी देते है । परन्तु दया के सागर के गोल्ज्यू देव किसी के प्राणों की बलि से कैसे प्रसन्न हो सकते है । सभी को जीवन देने वाले गोल्ज्यू किसी के प्राणों की आहुति से प्रसन्न नहीं होते बल्कि सच्ची भक्ति से प्रसन्न होते है । भगवान गोल्ज्यू से प्रार्थना करती हूँ कि वह सभी प्राणियों के दुखों का अन्त कर उन्हें सुख प्रदान करें । 


ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः गुरूः ॐ 
ॐ साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्रीगुरूवे नमः ॐ गं गणपतयै नमः श्री मन्महागणाधिपतये नमः श्री लक्ष्मीनारयणाभ्या नमः 
श्री उमामहेश्वरा झा नम : माता - पितृभ्या नमः 
ॐ श्री ईष्ट गोलू देवताय भ्यो नमः बटुक भैरवाय कुल देवताभ्यो नमः





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