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घुघुती त्यौहार क्यों मनाया जाता हैं ? | Ghughuti Tyohar | कुमाऊँ मकर संक्रांति त्यौहार

घुघुती त्यौहार क्यों मनाया जाता हैं ? | Ghughuti Tyohar | कुमाऊँ मकर संक्रांति त्यौहार 


नमस्कार दोस्तों आज हम आपको अपनी इस पोस्ट में उत्तराखंड के कुमाऊँ में घुघुती त्यौहार क्यों मनाया जाता हैं। इसके बारे में बताएंगे।

उत्तराखंड में मकर सक्रांति तो मनाया ही जाता हैं, परन्तु उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल में इसको घुघुतिया त्यार के नाम से मनाया जाता हैं। जो कि कुमाऊँनी का लोक पर्व त्यौहार हैं, जिसको कुमाऊँनी लोग बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। इस त्योहार का मुख्य आकर्षण कौवा है। बच्चे इस दिन बनाए गए घुघुते कौवे को खिलाकर कहते हैं-

 
'काले कौवा काले घुघुति माला खा ले'।


उत्तरायणी मेला ( घुघुतिया त्यार )-

उत्तरायणी मेला- मकर संक्रान्ति के अवसर पर कुमाऊँ - गढ़वाल क्षेत्र के कई नदी घाटों एवं मन्दिरों पर उत्तरायणी मेले लगते हैं। गोमती, सरयू व अदृश्य सरस्वती संगम पर स्थित बागेश्वर में पहले यह मेला कई दिनों के लिए लगता था। यहाँ कुमाऊ क्षेत्र के शिल्पियों तथा व्यापारियों के अलावा नेपाली व तिब्बती व्यापारी भी आते थे और वस्तुओं का आदान - प्रदान होता था। सन् 1921 में इसी मेले में मकर संक्रांति के दिन उस समय प्रचलित कुली बेगार कुप्रथा को बद्रीदत्त पाण्डेय के नेतृत्व में समाप्त करने का संकल्प लिया गया था और कुली बेगार से सम्बन्धित सभी कागजात सरयू नदी में बहा दिए थे। 1929 में महात्मा गाँधी यहाँ आए थे और स्वराज मंदिर भूमि का शिलान्यास किया था।

घुघुती त्यार प्रचलित कथा-

घुघुती त्यार मनाने के पीछे एक लोकप्रिय लोककथा है। यह लोककथा कुछ इस प्रकार है। जब कुमाऊँ में चन्द्र वंश के राजा राज करते थे, तो उस समय राजा कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी, संतान ना होने के कारण उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। उनका मंत्री सोचता था कि राजा के मरने के बाद राज्य उसे ही मिलेगा एक बार राजा कल्याण चंद अपनी पत्नी के साथ बागनाथ मंदिर के दर्शन के लिए गए और संतान प्राप्ति के लिए मनोकामना करी और कुछ समय बाद राजा कल्याण चंद को संतान का सुख प्राप्त हो गया जिसका नाम “निर्भय चंद” पड़ा। 

राजा की पत्नी अपने पुत्र को प्यार से “घुघती” के नाम से पुकारा करती थी और अपने पुत्र के गले में “मोती की माला” बांधकर रखती थी। मोती की माला से निर्भय का विशेष लगाव हो गया था इसलिए उनका पुत्र जब कभी भी किसी वस्तु की हठ करता तो रानी अपने पुत्र निर्भय को यह कहती थी कि “हठ ना कर नहीं तो तेरी माला कौओ को दे दूंगी। उसको डराने के लिए रानी “काले कौआ काले घुघुती माला खाले” बोलकर डराती थी। ऐसा करने से कौऐ आ जाते थे और रानी कौओ को खाने के लिए कुछ दे दिया करती थी। धीरे धीरे निर्भय और कौओ की दोस्ती हो गयी। दूसरी तरफ मंत्री घुघुती(निर्भय) को मार कर राज पाठ हडपने की उम्मीद लगाये रहता था ताकि उसे राजगद्दी प्राप्त हो सके।

एक दिन मंत्री ने अपने साथियो के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा घुघुती (निर्भय) जब खेल रहा था तो मंत्री उसे चुप चाप उठा कर ले गया। जब मंत्री घुघुती (निर्भय) को जंगल की ओर ले जा रहा था तो एक कौए ने मंत्री और घुघुती(निर्भय) को देख लिया और जोर जोर से कॉव-कॉव करने लगा। यह शोर सुनकर घुघुती रोने लगा और अपनी मोती की माला को निकालकर लहराने लगा उस कौवे ने वह माला घुघुती(निर्भय) से छीन ली। उस कौवे की आवाज़ को सुनकर उसके साथी कौवे भी इक्कठा हो गए एवम् मंत्री और उसके साथियो पर नुकली चोंचो से हमला कर दिया। हमले से घायल होकर मंत्री और उसके साथी मौका देख कर जंगल से भाग निकले।

राजमहल में सभी घुघुती(निर्भय) की अनूपस्थिति से परेशान थे। तभी एक कौवे ने घुघुती(निर्भय) की मोती की माला रानी के सामने फेक दी यह देख कर सभी को संदेह हुआ कि कौवे को घुघुती(निर्भय) के बारे में पता है इसलिए सभी कौवे के पीछे जंगल में जा पहुंचे और उन्हें पेड़ के निचे निर्भय दिखाई दिया उसके बाद रानी ने अपने पुत्र को गले लगाया और राज महल ले गयी। 

जब राजा को यह पता चला कि उसके पुत्र को मारने के लिए मंत्री ने षड्यंत्र रचा है तो राजा ने मंत्री और उसके साथियों को मृत्यु दंड दे दिया। घुघुती के मिल जाने पर रानी ने बहुत सारे पकवान बनाये और घुघुती से कहा कि अपने दोस्त कौवो को भी बुलाकर खिला दे और यह कथा धीरे धीरे सारे कुमाउं में फैल गयी और इस त्यौहार ने बच्चो के त्यौहार का रूप ले लिया। तब से हर साल इस दिन धूम धाम से इस त्यौहार को मनाया जाता है। इस दिन मीठे आटे से जिसे घुघुते भी कहा जाता है। उसकी माला बनाकर बच्चों द्वारा कौवों को खिलाया जाता हैं।

शास्त्रों के अनुसार घुघुतिया त्यौहार की ऐसी मान्यता है कि इस दिन सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने उनके घर जाते है इसलिए इस दिन को मकर सक्रांति के नाम से ही जाना जाता हैं।

महाभारत की कथा के अनुसार भीष्म पितामह ने अपने देह त्याग ने के लिए मकर सक्रांति का ही दिन चुना था। यही नहीं यह भी कहा जाता है कि मकर सक्रांति के दिन
ही गंगाजी भागीरथी के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थी। साथ ही साथ इस दिन से सूर्य उत्तरायण की ओर प्रस्थान करता है, उत्तर दिशा में देवताओं का वास भी माना जाता है इसलिए इस दिन जप-तप, दान-स्नान, श्राद्ध-तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व हैं।

इस त्यौहार को उत्तराखंड में उत्तरायणी के नाम से मनाया जाता है एवम् गढ़वाल में इसे पूर्वी उत्तरप्रदेश की तरह खिचड़ी सक्रांति के नाम से मनाया जाता है। विश्व में पशु पक्षियों से सम्बंधित कई त्योहार मनाये जाते हैं पर कौओं को विशेष व्यंजन खिलाने का यह अनोखा त्यौहार उत्तराखण्ड के कुमाऊँ के अलावा शायद कहीं नहीं मनाया जाता है। यह त्यौहार विशेष कर बच्चो और कौओ के लिए बना है। इस त्यौहार के दिन सभी बच्चे सुबह सुबह उठकर कौओ को बुलाकर कई तरह के पकवान खिलाते है और कहते है :-

“काले कौओ काले घुघुती बड़ा खाले,
लै कौआ बड़ा, आपु सबुनी के दिए सुनक ठुल ठुल घड़ा,
रखिये सबुने कै निरोग, सुख समृधि दिए रोज रोज।”

इसका अर्थ है कि काले कौआ आकर घुघुती(इस दिन के लिए बनाया गया पकवान), बड़ा (उरद का बना हुए पकवान) खाले, ले कौव्वे खाने को बड़ा ले और सभी को सोने के बड़े बड़े घड़े दे, सभी लोगो को स्वस्थ रख और समृधि दे।

उम्मीद करते है, आपको पोस्ट पसन्द आयी होगी।

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